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Sab Likhni Kai Likhu Sansara : Padmavat Aur Jayasi Ki Duniya

Sab Likhni Kai Likhu Sansara : Padmavat Aur Jayasi Ki Duniya

Hardcover by MujeebRizvi in Hindi language
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Book Details:

Publisher: Rajkamal Prakashan
Language: Hindi
Binding: Hardcover
Pages: 350
ISBN: 9789388933070

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कम-ओ-बेश पचास साल की मेहनत के बाद तैयार किया गया प्रोफ़ेसर मुजीब रिज़वी का ये शोध ग्रंथ जनता के सामने उस समय आ रहा है जब वो स्वयं इस दुनिया में नह रहे। सन 1950 की दहाई में शुरू किए गए इस ग्रंथ पर आख़िरकार 1979 में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेट की उपाधि दी थी। यह शोध ग्रंथ न सिर्फ़ मलिक मुहम्मद जायसी की तमाम रचनाओं का एक मौलिक विश्लेषण पेश करता है अपितु वो हमें सूफ़ी साहित्य की बहुत सी मान्यताओं और अभिव्यक्तियों से जायसी के माध्यम से पहली बार परिचित कराता है। मुजीब रिज़वी यह साबित कर देते हैं कि फ़ारसी और सूफ़ी साहित्य के ज्ञान के बिना जायसी को पढ़ना दुष्कर ही नहीं नामुमकिन भी है। जायसी का काव्य संसार एक बेहतरीन संगम है जिसमें भारतीय काव्य, लोक, साहित्यिक, धार्मिक और भाषाई परिभाषायें अरबी-फ़ारसी रिवायतों से इस तरह समागम हैं कि एक को दूसरे से अलग नह किया जा सकता। सूफ़ी शब्दों में कहा जाए तो मुजीब रिज़वी ये दर्शाते हैं कि जायसी के रचना संसार में फ़ारसी और भारतवर्ष की साहित्यिक-धार्मिक रिवायतें एक रूह दो कालिब हैं। न जायसी की इस उत्कृष्टता को उजागर करने के लिए मुजीब रिज़वी जैसे बहुभाषीय, सहिष्णु और विलक्षण विद्वान की आवश्यकता थी जिसमें भक्ति भाव, तसव्वुफ और साहित्य का विशिष्ट समागम हो। ये किताब जायसी, सूफ़ी प्रेमाख्यानों, अवधी संस्कृति और साहित्य की तमाम सम्भावनाओं को समेटे हुए उन विषयों पर हमारी समझ पे गहरा असर डालती है। ख़ास बातें “इस अपने दिवंगत आदरणीय शुभचिन्तक मित्र की किताब पढ़कर मुझे आभास मिला कि जायसी उन रचनाकारों में से हैं जो हिन्दी जाति या हिन्दुस्तानी क़ौमियत की एकात्मा का निर्माण कर रहे हैं। उस रास्ते पे हम चलते तो आज बगाहे मराठी-पंजाबी आदि जातीयताअ की तरह हिन्दी या हिन्दुस्तानी क़ौम को भी एक मान्य अस्तित्व मिला होता, हम हिन्दी-उर्दू या अब अन्य बोलियों में न बँटे होते। इस ग्रंथ के विषय में कुछ शब्द लिखने में मुझे गौरव का अनुभव हुआ।” -विश्वनाथ त्रिपाठी “स्वर्गीय प्रो. मुजीब रिज़वी आरम्भिक आधुनिक कालीन साहित्य और संस्कृति के अधिकारी विद्वान थे। मुजीब रिज़वी सही पहचानते हैं कि एक ओर हिन्दू पौराणिक कथाओं, धार्मिक मान्यताओं, दूसरी ओर इस्लामी मान्यताओं की प्रामाणिक जानकारी, साथ ही अवध के लोकजीवन से गहरी संपृक्ति के कारण जायसी बोलचाल के अनगढ़ शब्दों को भी अर्थोत्कर्ष के चरम बिन्दु तक पहुँचाने में सक्षम कवि हैं। इसीलिए वे संस्कृत ही नहीं, फ़ारसी के भी पदबंधों और मुहावरों को ऐन अवधी का बनाकर प्रस्तुत कर देते हैं। सोलहवीं सदी सचमुच अत्यंत उत्तेजक और प्रेरक घटनाक्रम की शुरुआत की सदी थी, और जैसा कि प्रो. मुजीब रिज़वी इस पुस्तक में कहते हैं, “जायसी सोलहवीं सदी की आवाज़ है।’ ” -पुरुषोत्तम अग्रवाल “डॉ. आदित्य बहल जो खुद प्रोफ़ेसर मुजीब रिज़वी साहेब के शागिर्द रह चुके हैं, उनके विचारों ने चंदायन और दूसरे सूफ़ी प्रेमाख्यानों को समझने में मेरी बहुत मदद की है। जैसा कि मुजीब रिज़वी दर्शाते हैं जायसी का काव्यात्मक लहज़ा फ़ारसी मसनवियों से बेइंतहा प्रभावित है।” -सायमन डिग्बी|
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